लेखनी कहानी -23-Mar-2023
मालविकाग्निमित्रम्-4
तृतीय अङ्क
तृतीय अङ्क के आरम्भ में प्रवेशक में मधुकरिका और समाहितिका यह संकेत देती है कि यद्यपि मालविका बहुत प्रशंसित हो चुकी है तब भी आजकल परिम्लान सी दीख पड़ती है तथा स्वामी भी उसके प्रति साभिलाष है, केवल धारिणी ही उसकी रक्षा कर रही है। अन्तःपुर के प्रमदवन में स्थित तपनीय अशोक के दोहद के लिए किसी तरूणी को पाद प्रहार करना था और यह कार्य महारानी धारिणी द्वारा ही सम्पन्न किया जाना था, किन्तु आकस्मिक पैर की चोट के कारण धारिणी ने इस कार्य के लिए मालविका को नियुक्त कर दिया और उसे ही प्रमदवन में जाने की अनुमति प्रदान की और यह वचन भी दिया कि यदि पाँच दिन में अशोक के पुष्प पुष्पित हो जायेंगे तो मालविका का मनोरथ पूर्ण कर देगी।
उधर राजा को दूसरी रानी इरावती के साथ झूला झूलने के लिए प्रमदवन में जाना था। अन्यमनस्क राजा विदूषक के आग्रह पर प्रमदवन आ जाता है और मालविका में मन रमा होने पर भी छोटी रानी इरावती के संदेशानुसार प्रमदवन में उपस्थित होता है वहां राना इरावती की प्रतीक्षा कर ही रहा है कि वहां उसे वकुलावलिका और मा लविका, जो अशोक के दोहद के लिए आयी थी दिखाई पड़ जाती है। यहीं विदूषक द्वारा राजा को ज्ञात होता है कि यद्यपि सम्पत्ति पर साँप के समान ही रानी मालविका पर निगाह रखती है तब भी वकुलावलिका आदि उसे राजा से मिलाने को प्रयत्नशील है और आज मालविका को राजा से मिलने का अवसर मिलता है। वहां उसे वकुलावलिका और मालविका, जो अशोक के दोहद के लिए आयी दिखाई पड़ जाती है पर तभी इरावती की चेटी निपुणिका के साथ प्रवेश कर दोनो मिल ही पाते है कि दूसरी ओर मदमस्त इरावती भी अपनी सेविका निपुणिका के साथ प्रमदवन में आ जाती है। राजा और इरावती दोनो ही अलग-अलग मालविका और वकुलावलिका की राजा के प्रति प्रेम की गुप्त बातें सुनते हैं। मालविका और वकुलावलिका की वार्ता से राजा विषयक प्रेम मालविका प्रकट करती है अपने पर प्रेम की वार्ता को सुन राजा अत्यन्त ही प्रसन्न हो जाता है कि जितना वे मालविका के लिए अधीर है उतना ही मालविका भी उसके प्रेम में आतुर है। ऐसा सुनकर राजा तो प्रेम मे प्रफुल्लित होता है किन्तु उधर रानी इरावती अत्यन्त ही रूष्ट हो जाती है और कटु शब्द सुनाती है। रक्तरञ्जित पैर से मालविका द्वारा अशोक पर पाद प्रहार करते देख कर विदूषक कहता है कि क्या महाराज के मित्र स्वरूप अशोक वृक्ष पर आपके द्वारा पैर से प्रहार करना ठीक रहेगा? तब वकुलावलिका बताती है कि महारानी की आज्ञा से ही यह कार्य सम्पन्न करने यहाँ आई है। राजा आज्ञा दे देते हैं और कहते है कि अपने बायें पैर में पाद प्रहार में कोई कष्ट न हो। तब मालविका राजा के पैर को छूकर क्षमा माँगती है दोनो का स्पर्श होता है। राजा के द्वारा मालविका से अपना प्रेम प्रकट करने के समय ही वहां इरावती पहुंच जाती है। सम्भ्रमपूर्वक राजा इरावती से कहता है कि मैं तुम्हें दूढता रहा किन्तु तुम्हारे न आने पर ही मन बहलाने के लिए इधर चला आया। यहाँ पर इरावती की सपत्नीजन्य ईर्ष्या भड़क उठी। वह राजा को व्यंग्य वाणों से भेदन करती है और वकुलावलिका को फटकारते हुए वहां से जाने लगती है। राजा अग्निमित्र इरावती के चरणों में अपनी पगड़ी रख भी क्षमा प्रार्थना करते हैं व उसके पाँव पकड़ लेते हैं किन्तु वह नहीं मानती है और क्रोध के वशीभूत होकर वहाँ से चली जाती है। विदूषक राजा से कहता है कि इरावती यहाँ से मंगल ग्रह के समान वापस चली गयी हैं अतैव अब आप भी चलिए। राजा भी विचार करता हैं कि जब रानी उसका अनादर कर सकती है तो मै भी उसकी उपेक्षा कर सकता हूँ।
मन्ये प्रियाहृतमनास्तस्याः प्रणिपातलङ्घनं सेवाम् ।
एवं प्रणयवती सा मयि शक्यमुपेक्षितुं कुपिता॥
और ऐसा विचार कर वह अपना ध्यान मालविका पर आसक्त करता है। उसके पश्चात सभी वहां से चले जाते हैं। उधर इरावती ईष्या से जली हुई सीधे जाकर रानी धारिणी को मालविका और वकुलावलिका के विरूद्ध भड़का देती है। धारिणी ने दोनों को कारागृह में डाल दिया और विश्वस्त परिचारिका को कार्य पर लगा दी कि उसकी सर्प चिह्न वाली अंगूठी देखे बिना उन दोनों को मुक्त न किया जाये।